नागपुर के ‘मोती महल’ में स्वादिष्ट भोजन का आनंद ले, हम लौट रहे थे तो रात के समय राह की पहचान न होने के कारण रास्ता भटक गए। आखिर एक सटीक रास्ता मिला तो हम पहुँच पाए अपने ठिकाने। भरपेट भोजन और किसी तरह की चिंता न होने के कारण नींद ने झट आ घेरा। सुबह आँख खुली तो दिन का उजाला हो चुका था। आलस के मारे, आराम से स्नान किया गया। देर इतनी हो चुकी थी कि गुरू-घर में शीश नवाने के बाद, नाश्ते की तलाश में भटकना पड़ा।
कुछ दूर ही दिखा The Executive inn! नाम को देख ही खिसक लिए कि पता नहीं कितना मंहगा होगा? या फिर हमारा पहनावा देख ही ना घुसने दिया जाए! डॉग्स और इंडियन नॉट एलाऊड टाईप!! ठीक उसी के सामने सड़क पार, मिक्चर-पापड़ जैसी दुकान दिखी। अपना मनपसंद कुछ मिला नहीं तो राह के लिए कुछ छुटपुट चबैना ले लिया गया।
भूख जोरों से लग आई थी, मन मार कर उस The Executive inn में घुसने की हिम्मत कर ही ली।अंदर जा कर दिखा एक साफ़-सुथरा दक्षिण भारतीय व्यंजनों सहित अन्य नाश्तों से भरे-पूरे मेन्यू वाला, करीने से व्यवस्थित रेस्टोरेन्ट। सुबह-सुबह का समय था, जो माँगा गया वह मिला नहीं। उत्तपम, सांबर-बड़ा, नींबू चाय उदरस्थ कर लौट आए। कीमतें उचित ही थी। बरबस एक कहावत को बिगाड़ बैठा ‘नाम बड़े और कीमत छोटी’!
सड़क मार्ग से की गई इस यात्रा की संक्षिप्त जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें»
सोमवार का दिन था। फुरसत पाते ही पहला काम किया गया बीएसएनएल के ग्राहक सेवा केन्द्र में सम्पर्क करने का। बाकी सब तो ठीक था, लेकिन रोमिंग में जीपीआरएस काम नहीं कर रहा था। जितनी बार 24365 डायल किया गया उतनी बार प्रत्त्यूत्तर मिला कि नम्बर गलत है, कृपया दुबारा जाँच कर कॉल करें। फिर कोशिश की 024365 की, नतीज़ा वही। 9425024365 या 09425024365 डायल किए जाने पर वही मशीनी जवाब कि नम्बर गलत है, कृपया दुबारा जाँच कर कॉल करें।
मैंने अपने सहयोगियों से सम्पर्क किया और उन्हें स्थानीय तौर पर यह पता करने को कहा कि रोमिंग में ग्राहक सेवा केन्द्र से कैसे सम्पर्क किया जाए? वहाँ भी यही जवाब मिला कि नम्बर गलत है!! तब तक साढ़े दस बज चुके थे। मैंने भिलाई के मोबाईल अनुभाग से सम्पर्क किया, अपनी समस्या बताई। उनका आश्वासन मिला, हम खामोश हो गए। और कर भी क्या सकते थे!?
अगली फुरसत में कॉल किया गया नागपुर निवासी ब्लॉगर साथी श्रीमती स्वाति चड्ढा को। उन्हीं के ब्लॉग की एक समस्या सुलझाते, परिचय हुए कुछ अरसा ही हुआ था। वे हैरान हुईं मेरे नागपुर में होने की बात सुन कर। औपचारिक बातों के बाद उन्होंने हमें अपने घर पर शाम के समय आमंत्रित किया, लेकिन हमारा कार्यक्रम कुछ और ही था सो इंकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। उस समय मुलाकात भी नहीं हो पाती। वे अपने कार्यालय में थीं, जो शहर के दूसरे सिरे में था।
अगला कदम था, अपनी मारूति वैन में गैस डलवाने का। नागपुर सहित महाराष्ट्र के आटो-एलपीजी स्टेशन्स की सूची प्रिंट कर ले ही आया था। शहर में अब कोई कार्य था नहीं, सो अपना सामान समेटा और चल पड़े गैस डलवाने के बाद अमरावती की ओर। अभी हम शहर की सीमा में ही थे कि सायलेंसर की कर्कश टनटनाहट शुरू हो गई। कोई और मामला होता तो अपन ही देख लेते, लेकिन सायलेंसर के लिए तो जमीन पर लेटना पड़ता, भरी सड़क पर! मैकेनिक की तलाश की गई तो एक पता बताया गया मुर्तुजा गैरेज। अनजानी सड़कों, गलियों में पता पूछते हम जा पहुँचे एक मुस्लिम बहुल इलाके में।
मुहल्ले का नाम तो अब याद नहीं रह गया, किन्तु वहाँ हमने एक ऐसा पारम्परिक माहौल देखा कि भूल गए यह भारत है। चारों ओर पारम्परिक टोपियाँ पहने बच्चे, सिर ढ़की बच्चियाँ, बुरके में आती जाती महिलाएँ, रंगे बालों वाले पान चबाते पुरूष, तमाम तरह के कुटीर उद्यमों में व्यस्त युवा, मस्जिद से आती आवाज़ें, कटते जानवर! लगा कि जैसे हम पाकिस्तान में हैं!! बाकी माहौल ऐसा ही जैसा कि आम बस्ती में होता है।
हम जैसे ही मुर्तुजा गैरेज में पहुँचे, थोड़ी हैरानी हुई। कारण, इतनी संकरी गलियों के बीच खुली सी जगह पर बनाया गया वह गैरेज और उससे लगा हुआ उनका निवास स्थान। हमारे बैठते ही घर के अंदर से पानी भिजवाया गया। शायद महिलाओं ने बिटिया को साथ देख लिया था। अंदर आने को कहा गया, लेकिन उसे तो वर्कशॉप में होने वाले कार्यों को देखने की उत्सुकता थी। कुछ बोरियत सी लगी तो मैंने आसपास किसी इंटरनेट कैफ़े की जानकारी चाही। दो लड़कों को कुछ कह कर दौड़ाया गया। हाँफते हुए वे लौटे तो पता चला कि समय से पहले किसी कैफ़े को खुलवाने गए थे लेकिन बिज़ली ही नहीं है।
गरम सायलेंसर को ठंडा होने के बाद सुधारा गया। तब तक दोपहर हो चली थी। बेहद विनम्रता से बात करने वाले उन वर्कशॉप स्वामियों से विदा ले हम चल पड़े, अमरावती की ओर। मुझे बाद में ख्याल आया कि यदि कोई पूर्वाग्रह रहता तो शायद बस्ती में घुसने के पहले ही लौट गया होता।
28 जून 2010 की उस दोपहर, इसरो के Regional Remote Service Center के सामने से गुजरते हुए ऑर्डिनेंस फैक्टरी की ओर बढ़ ही रहे थे कि गाड़ी का इंजिन बंद हो गया। किनारे कर, दो-चार बार इग्नीशन दे शुरू करने की कोशिश की लेकिन कोई हलचल नहीं। संभावित कारण परखने की कोशिश में पता चला कि गैस का प्रवाह रुक गया है। कान लगा कर सुना तो समझ आया कि इंजिन के पास वाला सोलेनोइड रिले काम नहीं कर रहा। गैस-पेट्रोल स्विच ऑफ किया गया, पाईप्स में बची गैस खत्म होते तक इंजिन चलाया गया, ऑटो-एलपीजी टैंक के ऊपर का वाल्व बंद किया गया। फिर औजारों का इस्तेमाल कर निष्किय सोलेनोइड खोला गया तो सामने, कार्बन-धूल से फंसा हुया वह धातु का टुकड़ा मिला जिससे गैस का प्रवाह नियंत्रित होता है। उसे अच्छे से साफ कर सावधानी पूर्वक फिट कर, वाल्व खोल इग्नीशन घुमाया, तब कहीं जा कर इंजिन गुर्राया!
लगभग डेढ़ घंटा खराब हो चुका था। गरमी, उमस के मारे बुरा हाल था। दोपहर के दो बज चुके थे। अभी तो अमरावती 120 किलोमीटर दूर था और अकोला उससे 90 किलोमीटर आगे। सडकों की हालात देखते हुए लग रहा था कि अंधेरा होते होते अकोला पहुंच ही जायेंगे। योजनानुसार, हमारा अगला दर्शनीय स्थल था अजंता की गुफाएं। अकोला में रूका जाए कि अमरावती में? इसी उधेड़बुन में उलझा, मैं बढ़ चला।
एक बात पर मेरा ध्यान बार बार जाता था कि हर तीसरे-पाँचवे मील के पत्थर पर धुले/ धुलिया की दूरी दिखाई जा रही। अनुमान लगा पाया कि पहले जब यह राष्ट्रीय राजमार्ग-6, धुले तक रहा होगा तब से अंतिम छोर की दूरी बताई जा रही हो। इस समय वह था 470 किलोमीटर दूर।
बाजारगाँव के आगे ही एक टीले पर, किसी छोटे से बोर्ड पर किन्ही यादव का नाम लिखा हुया था और उससे भी बड़े अक्षरों में लिखा था –जौनपुर (यू पी)! मैं हैरान हुआ कि किसी चमत्कार के चलते कहीं उत्तरप्रदेश तो नहीं पहुँच गया ! किन्तु जैसे जैसे आगे बढ़ते गया, उन्नाव, कानपुर, बनारस, इलाहाबाद जैसे कई बोर्ड दिखे। समझ में आते गया कि प्रवासी बंधुयों ने राहगीरों को आकर्षित करने के लिहाज से अपने मूल निवास को दर्शाते हुए खान-पान केंद्र खोल रखे हैं।
एक्सप्रेस वे शुरू हो चुका था। उससे पहले एक ढ़ाबे पर चटपटे आलू के परांठों का आनंद, दही के साथ लिया जा चुका था। करंजा से हो कर तालेगाँव जाते हुए खतरनाक घाटियाँ डरा रहीं थी तो शानदार पहाड़ लुभा रहे थे। अभी हम अमरावती से कुछ दूर ही थे कि पुलिस वर्दीधारियों ने रूकने का इशारा किया। निश्चिंत सा मैं नीचे उतरा और सारे कागज़ात आगे कर दिए। सरसरी सी निगाह डाल, उनमें से एक ने पिछला दरवाज़ा खुलवाया तो गैस की टंकी देख उसकी बांछें खिलती दिखी। ‘इसकी परमीशन कहाँ है?’ मैंने पंजीयन पुस्तिका के उस स्थान पर ऊँगली रख दी, जहाँ आरटीओ की अनुमति देती सील लगी थी।
दूसरे वर्दीधारी ने बाऊंसर फेंका ‘पीयूसी सट्टीपिकेट कहाँ है?’ जब जानना चाहा कि यह क्या होता है तो बताया गया कि वाहन का प्रदूषण नियंत्रण में है, ऐसा प्रमाणपत्र होता है। तब मुझे याद आया कि वर्षों पहले छत्तीसगढ़ में भी कभी हंगामा हुआ था, जगह जगह शिविर लगाए गए थे, अखबारों में विज्ञापन दिए गए थे, खूब धर-पकड़ हुई थी कि वाहन की जाँच करा कर ऐसा प्रमाणपत्र ले लो! अब तो वैसा कुछ नहीं दिखता!! संशय में, अपने आरटीओ एजेंट को फोन लगाया। उसने खेद जताते हुए बस इतना ही कहा कि मैं बताना भूल गया, वैसे यह है ज़रुरी पूरे भारत में।
वर्दीधारियों ने यह बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि इस प्रमाणपत्र के ना पाए जाने पर 500 रूपए का जुर्माना होता है। 10% सेवाशुल्क के बाद बताया गया कि आगे एक ‘केन्द्र’ है, वहाँ से सट्टीपिकेट बनवा लीजिए, वरना फिर तकलीफ़ होगी। दो किलोमीटर बाद ही वह ‘केन्द्र’ दिखा। खानाबदोशों की लगती, बदरंग सी पुरानी मारूति वैन में कुछ मीटर लगे यंत्र थे और पास ही लकड़ी की बेंच पर बैठे थे दो किशोर, ताश खेलते हुए।
हमें रूकते देख एक ने वहीं बैठे बैठे पास ही पड़े कागजों का पुलिन्दा अपने हाथ में लिया और जब तक मैं बता पाता कि ‘उन’ पुलिस वालों के बताए जाने पर आए हैं, तब तक ‘प्रमाणपत्र’ हाथ में रख दिया। फिर मुस्कुरा कर बोला ‘पचास रूपए’। दूसरा किशोर, विंडस्क्रीन पर स्टीकर भी चिपका चुका था। मैंने कहा कि आपने जाँच तो की ही नहीं! उसने कहा, फिर तो चालीस और देने पड़ते!! जाओ ना, आपको भी तो यही कागज़ चाहिए था ना!? वापस पलटा तो एक बिल्ली शायद मुझसे कुछ कहने की कोशिश में म्याऊँ-म्याऊँ करती टुकुर-टुकुर देख रही थी.
इस पूरी यात्रा में सबसे अधिक मंहगे टोल टैक्स वाला मार्ग था, अमरावती का बाय-पास। इसमें कोई दो राय नही कि 80 रूपए लिए जाने के बावज़ूद कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि यह रकम कुछ ज़्यादा थी। मुक्त कंठ से इस व्यवस्थित मार्ग की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। शानदार!
अब तक हम भिलाई से 400 किलोमीटर आ चुके थे और धुले की दूरी दिख रही थी 350 किलोमीटर। इस बीच कई बार बीएसएनएल के रायपुर कार्यालय से जीपीआरएस संबंधित शिकायत पर कार्रवाई करने वालों की कॉल आती रही। बताया गया कि भोपाल-नागपुर-रायपुर के बीच समन्वय बना हुआ है ज़ल्द ही समस्या सुलझ जाएगी. लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। मुझे लगा कि यह अपने नाम को साकार कर रहा: BSNL याने बे-सहारा, नालायक, लाचार
अकोला के कृषि विश्वविद्यालय से आगे एक फ्लाय-ओवर पर मैंने गाड़ी रोकी। मंद-मंद ठंडी हवा चल रही थी। शहर को एक बार नज़रें भरकर मैंने अपने सुपुत्र को फोन लग कर अकोला पहुँचने की सूचना दी, तो उसने शिकायत की ‘आपकी लोकेशन नहीं दिख रही, इंटरनेट पर!?’ मैंने बताया कि जीपीआरएस काम नहीं कर रहा। हम भी इस वजह से कई बार रास्ता भटकते हुए बचे हैं। सावधान रहने की हिदायत दे कह उसने कॉल खतम की।
भूख लग चुकी थी। थोड़ी दूर पर ही चमचमाता राजस्थान भोजनालय का नियोन-साइन दिखा। पहली मंजिल पर स्थित वह सजा-धजा रेस्टोरेन्ट सूना पड़ा हुआ था, बमुश्किल दो युवक बैठे दिखे पूरे हॉल में। शायद अभी रौनक का समय नहीं हुआ होगा। लज़्ज़तदार भोजन का स्वाद लेते हुए ही हम पिता-पुत्री में विमर्श होता रहा कि अकोला में रूका जाए या नहीं? अभी तो आठ भी नहीं बजे हैं, थकान भी नहीं लग रही। अजंता ज़्यादा दूर नहीं होगा, यदि रवानगी ली जाए, रूकते रूकाते अलसुबह पहुँच कर दोपहर बाद औरंगाबाद निकल पड़ेंगे, जहाँ से हमें शिरड़ी जाना था।
नीचे टिप्पणी कर बताइए क्या निर्णय हुआ होगा? वही जो होना था! खौफ़नाक आवाजों के बीच, हमने राह भटक कर गुजारी वह भयानक अंधेरी रात
मेरी वेबसाइट से कुछ और ...
जून-जुलाई 2010 में की गई इस यात्रा का संस्मरण 20 भागों में लिखा गया है. जिसकी कड़ियों का क्रम निम्नांकित है.
मनचाही कड़ी पर क्लिक कर उस लेख को पढ़ा जा सकता है
- सड़क मार्ग से महाराष्ट्र यात्रा की तैयारी, नोकिया पुराण और ‘उसका’ दौड़ कर सड़क पार कर जाना
- ‘आंटी’ द्वारा रात बिताने का आग्रह, टाँग का फ्रेंच किस, उदास सिपाही और उफ़-उफ़ करती महिला
- ‘पाकिस्तान’ व उत्तरप्रदेश की सैर, सट्टीपिकेट का झमेला, एक बे-सहारा, नालायक, लाचार और कुछ कहने की कोशिश करती ‘वो’
- खौफ़नाक आवाजों के बीच, हमने राह भटक कर गुजारी वह भयानक अंधेरी रात
- शिरड़ी वाले साईं बाबा के दर से लौटा मैं एक सवाली
- नासिक हाईवे पर कीड़े-मकौड़ों सी मौत मरते बचे हम और पहुँचना हुया नवी मुम्बई
- आखिर अनिता कुमार जी से मुलाकात हो ही गई
- रविवार का दिन और अपने घर में, सफेद घर वाले सतीश पंचम जी से मुलाकात
- चूहों ने दिखाई अपनी ताकत भारत बंद के बाद, कच्छे भी दिखे बेहिसाब
- सुरेश चिपलूनकर से हंसी ठठ्ठे के साथ कोंकण रेल्वे की अविस्मरणीय यात्रा और रत्नागिरि के आम
- बैतूल की गाड़ी, विश्व की पहली स्काई-बस, घर छोड़ आई पंजाबिन युवती और गोवा का समुद्री तट
- सुनहरी बीयर, खूबसूरत चेहरे, मोटर साईकिल टैक्सियाँ और गोवा की रंगीनी
- लुढ़कती मारूति वैन और ये बदमाशी नहीं चलेगी, कहाँ हो डार्लिंग?
- घुघूती बासूती जी से मुलाकात
- ‘बिग बॉस’ से आमना-सामना, ममता जी की हड़बड़ाहट, आधी रात की माफ़ी और ‘जादू’गिरी हुई छू-मंतर
- नीरज गोस्वामी का सत्यानाश, Kshama की निराशा और शेरे-पंजाब में पैंट खींचती वो दोनों…
- आधी रात को पुलिस गश्ती जीप ने पीछा करते हुए दौड़ाया
- किसी दूसरे ग्रह की सैर करने से चूके हम!
- वर्षों पुरानी तमन्ना पूरी हुई, गुरूद्वारों के शहर नांदेड़ में
- धधकती आग में घिरी मारूति वैन से कूद कर जान बचाई हमने
… और फिर अंत में मौत के मुँह से बचकर, फिर हाज़िर हूँ आपके बीच
Powered by Hackadelic Sliding Notes 1.6.5
इस रास्ते पर हर 20-25 किलोमीटर पर टोल है।
बस 25 रुपए निकाल कर रखिए,और भेंट चढाईए।
कारंजा से 25 किलोमीटर पहले मैने रात को3 बजे गाड़ी चलाना शुरु की थी। सुबह6-7बजे वर्धा पहुंच गया था। रास्ता बहुत सुनसान मिला। कोई एकाध ट्रक मिलती थी। एक बार तो मुझे भ्रम हो गया था कि गलत रास्ते पर तो नहीं जा रहा हूं। फ़िर सोचा की कार की टंकी फ़ुल है और चौड़ी सड़क पर चल रहा हूँ, आखिए कहीं न कहीं तो जाएगी।:)
चलने दिजिए गाड़ी
चलती का नाम गाड़ी
आभार
आप की यात्राएँ बहुत तड़ातड़ वाली होती हैं। अकोला से अजंता 168 किलोमीटर है, मैं समझता हूँ कि रात्रि यात्रा के स्थान पर अकोला रुकना बेहतर समझा होगा।
आपकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी । पुरानी वैन में आपने इतना लम्बा सफर तय किया ।
उत्तरी भारत में ऐसा दुस्साहस कोई नहीं करता ।
फिलहाल सफ़र का मज़ा आ रहा है ।
स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक शुभकामानाएं.
हम तो जी आपके साथ साथ चल रहे है सो अगली पोस्ट में ही पता चलेगा कि हम लोग रुके या चले !?
यह बिल्लियो से आपकी बहुत जान पहचान है .
बहुत हिम्मत है आपमे में. मेरी तो बिना ड्रायवर के १०० कि.मी. जाने मे हवा खराब होती है .
बहुत अच्छा चल रहा है। अरे कोई राजस्थानी थाली को छोड सकता है भला?
बिल्लियां बहुत स्वागत कर रही हैं जी
आपके पास प्रदूषण नियन्त्रण प्रमाणपत्र ना होना, कमाल है और आपको इसके बारे में पता भी नहीं था!!! हैरत!
क्या भिलाई में यह जरुरी नहीं है?
रात के सफर का मजा अलग ही होता है, कम ट्रैफिक और गरमी से बचाव
प्रणाम स्वीकार करें
From Feedburner:
आदरणीय पाबला जी ,
आपके यात्रा संस्मरण इतने उम्दा और स्वादिष्ट बन पड़े हैं की जी होता है आपके साथ घूमे होते /मज़ा आगया और मुह मे पानी भी राजस्थानी थाली देख कर /खैर ,जरी रखिये ,ऐसी यात्रायें जीवन में रस बनाये रखती हैं ./
सस्नेह,
डॉ.भूपेन्द्र रीवा
मैकेनिक की तलाश की गई तो एक पता बताया गया मुर्तुजा गैरेज। अनजानी सड़कों, गलियों में पता पूछते हम जा पहुँचे एक मुस्लिम बहुल इलाके में।
मुहल्ले का नाम तो अब याद नहीं रह गया, किन्तु वहाँ हमने एक ऐसा पारम्परिक माहौल देखा कि भूल गए यह भारत है। चारों ओर पारम्परिक टोपियाँ पहने बच्चे, सिर ढ़की बच्चियाँ, बुरके में आती जाती महिलाएँ, रंगे बालों वाले पान चबाते पुरूष, तमाम तरह के कुटीर उद्यमों में व्यस्त युवा, मस्जिद से आती आवाज़ें, कटते जानवर! लगा कि जैसे हम पाकिस्तान में हैं!! बाकी माहौल ऐसा ही जैसा कि आम बस्ती में होता है।
It also happens in India !! 🙂
निर्णय तो शिरडी वाले बाबा और आप जानते हैं. हम क्यूं बतायें.
सर सबसे पहले यही कडी पढ ली है ..मजा आ रहा है , अब पिछली पढने जा रहा हूं ।
बहुत तेजी से चल रही है यात्रा -आखिर आ आगए न पुलिस के चपेट में …..हा हा -चलिए अब आगे ….
From Feedburner:
पाबला जी ,आप की यात्रा सब की यात्रा बन गयी भोजन के साथ समाप्ति से स्वाद भर गया.
– सुरेश यादव
http://www.blogger.com/profile/16080483473983405812
आप तो जी बेकार में ये सब ब्लोग लिखते हो सिर्फ़ ट्रेवलोग लिखा करो कमाई भी अच्छी हो जाएगी और घूमने का मजा भी हो जाएगा। मुझे पक्का यकीन है कि आप लोगों ने आगे जाने की ठान ली होगी, रात हो य न हो, आप को कौन रोक सकता था…है न?
आपके साथ-साथ मुझे भी सफ़र का आनंद आ रहा हैं.
धन्यवाद.
http://WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
यह पोस्ट भी रोचक लगी। आज कई पोस्टें पढ़ी…लग रहा है कि आप के साथ साथ मैं भी घूमे जा रहा हूँ 🙂
@ ललित शर्मा
सही बात है, हर 20-25 किलोमीटर पर टोल नाका मिल ही जाता है
@ डॉ टी एस दराल
मैं भी उत्तर भारत का ही एक बाशिंदा हूँ 🙂
@ अन्तर सोहिल
प्रदूषण नियंत्रणाधीन प्रमाणपत्र, भिलाई सहित पूरे भारत में आवश्यक है। मुद्दा उसकी आवश्कयता को गंभीरता से न लिए जाने का है
@ anitakumar
खग ही जाने खग की …
पाबला साहब दो कडी पढ चुका हूं, अब अगली का इंतजार है। अपनी यात्रा का मजा आ रहा है। हिम्मत की दाद देनी होगी, काइनेटिक होंडा वाला सफर मुझे अब तक याद है।
मैं तो डर गया की कहीं मेरे नाम का तो गैरेज नहीं मिल गया? गैरेज देख कर पिता जी की बात याद आती है.. की निः पढ़ेगा तो मकेनिक बनेगा.. वैसे आपकी यह संस्मरण वाली पोस्ट बहुत अच्छी जा रही है..
वैसे ऐसे पाकिस्तान बहुत से शहरों में देखे जा सकते हैं और नागपुर में दक्षिण भारतीय खाना, बात कुछ हजम नहीं हुई 🙁
टिप्पणीकर्ता विवेक रस्तोगी ने हाल ही में लिखा है: मैं उन सभी शरीफ़ लोगों को सैल्यूट करता हूँ ।
दक्षिण भारतीय खाना अब ग्लोबल हो गया है!
” किन्तु जैसे जैसे आगे बढ़ते गया, उन्नाव, कानपुर, बनारस, इलाहाबाद जैसे कई बोर्ड दिखे। समझ में आते गया कि प्रवासी बंधुयों ने राहगीरों को आकर्षित करने के लिहाज से अपने मूल निवास को दर्शाते हुए खान-पान केंद्र खोल रखे हैं।”
पुरबियो को अपने गाँव शहर से बहुत लगाव होता है ।कंही भी चले जाये अपने ठीहे की यादे साथ ले जाते है ,चाहे फिर ओ सूरीनाम हो मरिसश या फिर आपकी यात्रा मार्ग का बाजारगाँव। यात्रा वृतान्त सजीव बन पड़ा है। सजीव चित्रण के लिए साधुवाद।
दो साल बाद फिर से पोस्ट पढ़ना अच्छा लगा।